
सरकार को लगा कि अगर सोशल मीडिया बंद कर दिया जाए, तो युवा शांत हो जाएंगे। लेकिन सरकार भूल गई कि ये Gen-Z है — जो WiFi से ज़्यादा तेज़ दिमाग रखती है और VPN लगाना जनमसिद्ध अधिकार मानती है।
Instagram और Twitter पर बैन लगा, और अगले ही दिन काठमांडू में ट्रेंड कर गया — #बवाल_ही_ज़िंदगी_है।
‘हम सरकार नहीं सिस्टम बदलेंगे’ — और नेताओं के घर भी जलाएंगे
भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और झूठे वादों से परेशान हो चुकी युवा पीढ़ी ने ठान लिया — अब सिर्फ रील नहीं बनाएंगे, रियल एक्शन दिखाएंगे।
प्रधानमंत्री का इस्तीफा तो गया, साथ में सरकारी कुर्सियाँ और परदे भी जल कर राख हो गए।
नेताओं के बंगलों में आग और सड़कों पर नारे — लग रहा था जैसे “Narcos: Kathmandu Edition” लाइव चल रही हो।
576 कैदी बोले — “अरे ये तो हमारा भी मौका है”
जेल के बाहर प्रदर्शन हो रहा था, तो जेल के अंदर कैदियों ने कहा — “भाई, ये तो open mic night से भी बड़ा मौक़ा है।”
महोत्तरी की जलेश्वर जेल से 576 कैदी फरार हो गए — कुछ तो शायद प्रदर्शनकारियों से पूछ भी रहे होंगे, “भाई GPS लोकेशन भेज दो, अगला अड्डा कहाँ है?”
सेना की अपील: “भैया, थोड़ा संयम रखो, हम भी थक गए हैं”
सेना ने जब देखा कि सरकार तो ‘Airplane Mode’ में है और युवा ‘Fight Mode’ में, तो उन्होंने कमान अपने हाथ में ले ली।
रात 10 बजे से कहा गया — “अब बस! अब अगर पत्थर फेंका तो WiFi सिग्नल भी ब्लॉक कर देंगे।”सेना की अपील थी — “लोकतंत्र बचाना है तो आग नहीं, दिमाग चलाओ।”लेकिन इस समय देश में दिमाग और पेट्रोल — दोनों की भारी किल्लत है।
भारत बोला: “भैया पड़ोसी घर जला रहा है, हम दरवाज़ा बंद कर लें क्या?”
नेपाल की स्थिति देख भारत भी सोच में पड़ गया।
सीमा पर फौज अलर्ट
न्यूज़ चैनल पर स्पेशल शो — “Nepal की आग, Delhi के दरवाज़े तक?”

और ट्विटर पर मीम:
“जब पड़ोसी घर जलाए, तो हम सिर्फ़ चाय नहीं, पानी भी साथ रखें!”
Gen-Z बोले: “हमें सरकार नहीं, सिस्टम से शिकायत है”
इस बार का प्रदर्शन सिर्फ सोशल मीडिया के लिए नहीं था, ये आवाज़ थी उस पीढ़ी की जो ‘ऑनलाइन’ रहते हुए भी ‘ऑलवेज अवेयर’ है।
ये वो लोग हैं जो रात 3 बजे तक Netflix देखते हैं लेकिन सुबह 6 बजे क्रांति के लिए निकल सकते हैं। सरकार को लगा था — “ये बस रील बनाते हैं।”Gen-Z ने दिखा दिया —“हम रील से रिवॉल्यूशन बना सकते हैं।”
अब आगे क्या?
अब हालात इस मोड़ पर हैं कि सेना और प्रदर्शनकारी आमने-सामने हैं। प्रशासन की हालत वैसी ही है जैसी सुबह बिना चाय के आम आदमी की होती है — कमज़ोर, चिढ़चिढ़ी और हारी हुई।
नेपाल का ये आंदोलन किसी एक कानून, एक फैसले, या एक नेता के खिलाफ नहीं था। ये एक पूरी पीढ़ी की वो चीख थी जो कह रही थी:
“हम तुम्हारे संविधान से नहीं, तुम्हारे व्यवहार से परेशान हैं।”और अगर सरकारें अब भी नहीं समझीं, तो अगली क्रांति शायद डांस रील से नहीं, डिस्टर्ब रियलिटी से निकलेगी।
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